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अरण्य आख्यान: जन गण वन
अरण्य आख्यान: जन गण वन
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About the Book
*अरण्य आख्यान – जन गण वन* एक आदिवासी युवक की चेतना, संघर्ष और विचार-परिवर्तन की कथा है — जो जंगलों की गोद में जन्मा, अपनी जनजाति चिपचिपी पहचान के साथ बड़ा हुआ, और अन्ततः एक नक्सलवादी विचारधारा को अपनाता है।
यह उपन्यास मूलतः मराठी लेखक *विलास मनोहर* द्वारा लिखा गया था, जिसका शीर्षक था *एका नक्षलवाद्याचा जन्म*। यह 1992 में प्रकाशित हुआ और तब से सामाजिक यथार्थवादी साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। हिन्दी अनुवाद के रूप में प्रस्तुत यह संस्करण — *अरण्य आख्यान – जन गण वन* — नायक 'जुरु' के माध्यम से उस समाज की कथा कहता है, जिसे मुख्यधारा की राजनीति, शिक्षा और न्याय से वंचित रखा गया।
यह केवल एक व्यक्ति की कहानी नहीं है, बल्कि उस जंगल की भी है — जो न केवल भौगोलिक है, बल्कि सामाजिक और मानसिक भी। यह उपन्यास सवाल करता है: क्या विचारधारा जन्म से तय होती है, या परिस्थितियाँ उसे गढ़ती हैं?
यह एक जीवन्त चित्रण है — आदिवासी जीवन की बारीकियों, उनकी देहभाषा, उनके संघर्ष, और उस दोहरी दहशत की जो उन्हें पुलिस और माओवाद दोनों से झेलनी पड़ती है। यह उपन्यास एक रिपोर्ट की तरह दस्तावेज़ भी है, एक चिन्तन भी, और एक साहित्यिक अनुभव भी — जो पाठक को भीतर तक झकझोरता है।
About the Author
भटकना मुझे भाता है — चाहे आप इसे दिशाहीन कहें, मुझे कोई आपत्ति नहीं। रास्ते अपने बदलते रंगों और मौन निमंत्रणों के साथ हमेशा मुझे खींचते रहे हैं। किताबें वर्षों तक मेरी हमसफर रहीं — कानों में दुनिया की कहानियाँ फुसफुसाती रहीं। पर अब, शब्दों के बीच की खामोशी कुछ ज़्यादा गूंजने लगी है।
संगीत मेरा स्थायी साथी है। काम करते हुए या लम्बी यात्राओं में, सुरों की संगत बनी रहती है। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय की गहराई और सूफी संगीत की आत्मीयता मुझे भीतर तक छूती है। कभी-कभी बिथोवन और मोज़ार्ट भी बिना दस्तक दिए चले आते हैं — जैसे पुराने दोस्त, जो जानते हैं कि दरवाज़ा खुला ही मिलेगा। संगीत, मेरा विश्वास है, कभी अकेला नहीं छोड़ता।
प्रकाश और छाया के खेल में मुझे क्षणों को कैद करना अच्छा लगता है — कैमरे की आँख से। और जब मन करता है, तो शब्दों में भी बह जाता हूँ।
पिछले दो दशकों से मेरा काम स्कूली शिक्षा और शिक्षक विकास के क्षेत्र में रहा है। इस यात्रा में कुछ सामाजिक आन्दोलनों और सामुदायिक अभियानों में भी समय दिया है।
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